अहंकारी राजा का शासन
बहुत वर्षों पहले की बात है। धरणीपुर नामक एक राज्य में एक समृद्ध लेकिन अत्यंत अहंकारी राजा सूरजपाल राज करता था। राजा बुद्धिमान तो था, लेकिन उसे अपने धन, सेना और यश पर घमंड था। वह मानता था कि संसार में उससे बड़ा कोई नहीं।
उसकी राजसभा में हर कोई उसकी हाँ में हाँ मिलाता। जो नहीं मिलाता, उसे दंड मिलता।
साधु का आगमन
एक दिन एक विवेकानंद नामक साधु राज्य में आया। वह तपस्वी था, जिसने जंगलों में वर्षों तप किया था। वह लोगों को सत्य, सेवा और आत्मज्ञान का संदेश देता था।
जब राजा को पता चला कि एक साधु लोगों में उसे लेकर बुराई फैला रहा है, तो उसने उसे दरबार में बुलवाया।
राजा ने घमंड से कहा:
“हे साधु! मैंने राज्य जीता है, सेनाएं पाली हैं, धन का भंडार है – फिर भी तुम कहते हो कि मैं अज्ञानी हूँ?”
साधु मुस्कराया और बोला:
“राजन्, आपने बाहरी संसार जीता है, लेकिन क्या आपने अपने भीतर का अहंकार भी जीता है?”
पहला सबक – आत्मनिरीक्षण
राजा क्रोधित हुआ लेकिन साधु की शांत मुस्कान ने उसे विचलित कर दिया।
साधु ने कहा,
“यदि आप मुझे सात दिन अपने साथ रख सकें, तो मैं आपको जीवन का वह रहस्य दिखाऊँगा जिसे जानने के बाद आप सच्चे राजा कहलाएंगे।”
राजा सहमत हुआ।
पहला दिन – अहंकार का बोझ
साधु ने राजा से एक साधारण धोती पहनकर नगर भ्रमण करने को कहा। जब राजा सादे वस्त्रों में बाजार में निकला, तो लोगों ने उसे पहचाना ही नहीं। कुछ ने उसे भिखारी समझकर अपमानित किया।
राजा अपमान से तिलमिला उठा।
साधु बोला,
“जिस राजा को लोग सलाम करते हैं, वे सिंहासन और आभूषण को देखते हैं, न कि व्यक्ति को। स्वयं को पहचानिए, वस्त्र नहीं।”
दूसरा दिन – सेवा का मूल्य
साधु राजा को एक गाँव में ले गया जहाँ अकाल पड़ा था। उन्होंने भूखे लोगों को खाना परोसने का आदेश नहीं दिया, बल्कि राजा से खुद खाना पकवाया और परोसा।
राजा ने पहले मना किया, लेकिन अंततः जब उसने एक भूखे बच्चे को खाना देते देखा, तो उसकी आँखें भर आईं।
साधु बोला,
“जो अपने हाथों से सेवा करता है, वही सच्चा राजा होता है।”
तीसरा दिन – क्रोध की अग्नि
साधु राजा को जंगल में ले गया जहाँ एक दुष्ट डाकू ने उन्हें घेर लिया। राजा तलवार निकालना चाहता था, लेकिन साधु ने उसे रोका।
साधु ने डाकू से शांत स्वर में बात की और उसे समझाया कि हिंसा से किसी को कुछ नहीं मिलता। डाकू रो पड़ा और साधु के चरणों में गिर गया।
साधु ने राजा से कहा,
“क्रोध और अहंकार का जवाब करुणा से दो – यही शाश्वत शक्ति है।”
चौथा दिन – ध्यान और मौन
राजा को पूरा दिन मौन रहकर ध्यान करने को कहा गया। शुरुआत में उसके मन में हजारों विचार आए, लेकिन धीरे-धीरे वह शांति में डूब गया।
उसने पहली बार अपने भीतर झाँका।
पाँचवाँ दिन – परमार्थ का दर्शन
साधु ने राजा को मंदिर ले जाकर कहा कि वहाँ कुछ भी दान न करें, केवल लोगों की समस्याएँ सुनें।
राजा ने गरीबों, विधवाओं, किसानों की व्यथा सुनी। यह उसके लिए एक नया अनुभव था। पहली बार उसे महसूस हुआ कि उसका कार्य सेवा और संरक्षण है, शासन नहीं।
छठा दिन – मृत्यु का सत्य
साधु राजा को एक श्मशान ले गया। वहाँ राजा ने देखा – राजा, मंत्री, सैनिक, भिखारी – सबकी चिताएँ एक सी थीं। कोई भेद नहीं था।
साधु ने कहा,
“जो इस सच्चाई को जान ले, वही जीवन को सही दिशा दे सकता है।”
सातवाँ दिन – आत्मज्ञान
साधु ने अंत में राजा से पूछा,
“राजन्, अब बताओ – क्या तुम वही सूरजपाल हो?”
राजा की आँखों से आँसू बहने लगे।
“नहीं, मैं अब स्वयं को सेवक मानता हूँ, एक साधारण मनुष्य जो कुछ सीख रहा है।”

राजा का परिवर्तन
राजा सूरजपाल ने अगले ही दिन घोषणा की कि वह राज्य का सेवक बनकर शासन करेगा। उसने दरबार में सच्चे, साहसी और ईमानदार लोगों को स्थान दिया।
राजा ने कई धर्मशालाएँ, स्कूल, और चिकित्सालय खुलवाए। साधु की शिक्षाओं पर आधारित “विवेक नीति ग्रंथ” की रचना की गई, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनी।
आज भी…
धरणीपुर के लोग आज भी कहते हैं –
“राजा तो कई हुए, पर सूरजपाल जैसा राजा जो साधु की शिक्षा से जगा, वही सच्चा राजा था।”
🌟 कहानी से सीख:
- सेवा, विनम्रता और आत्मज्ञान से ही सच्चा नेतृत्व आता है
- साधु और संत समाज के मार्गदर्शक होते हैं
- क्रोध, घमंड और भ्रम से मुक्ति ही राजा को “धर्मराज” बनाती है